कर्म प्रेम से तु करता चल....
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कर्म प्रेम से तु करता चल,
प्रेम की धारा तु बनता चल।
अपनी सोच का अपनी समस्या,
ईलाज नहीं कोई औषध करता।
लिखा करम में जो है विधाता,
पार न कोई उनसे है पाता।
घटे जो घटना वही घटाता,
पागल इंसा सोच कर रोता।
समय काल हर एक इंसा का,
समय से आना समय से जाना।
सच्चाई को जो तुम जानो,
मन अशांत कर दुखी न होता।
जो अपने बस में नहीं होता,
फिर काहे खूद को उलझाना।
कर्म प्रेम से तु करता चल,
प्रेम की धारा तु बनता चल।
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✒....धीरेन्द्र श्रीवास्तव (हृदय वंदन)
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