अपना बचपन नया दौर....
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बचपन की हर एक यादें बहुत अच्छी होती थी
धूल में सनी हुई जिन्दगी बड़ी सच्ची होती थी।
क्या दौर क्या जीवन था मराते थे पर प्यार था
बाबा दादी के साथ रहें माता पिता के साथ रहें।
नाना नानी के साथ रहें चाचा चाची के साथ रहें
बुआ फूफा के साथ रहें हर रिश्ते में ताजगी रही।
रिश्ते वही हैं इंसान भी वही हैं फरक बस यही है
बचपन नासमझी का था पर समझ बड़ी हो गई।
आज का न पूछो नास्तिक सब खुदा बन गए हैं
न भरोसा न विश्वास है पढ़ा लिखा भी बीमार है।
कमजोर दिल हुआ दिमाग भी कमजोर हो गई
भरोसा न कहीं रही विश्वास अब नदारद हो गई।
कमाने की होड़ मची आधुनिकता की जोर लगी
घर से पलायन हुआ कंकरीट के मीनारों में बसे।
घर सा महोल कहाँ डरे सहमें जिन्दगी है जहाँ
संस्कार अब यही मिले मतलब किसी से न रहे।
डरते हैं हर लोग यहाँ जिन्दगी जिए फिर कहाँ
अविश्वास की भेंट चढ़ी खुशियों की बाट लगी।
दौर ऐसा आ गया भरोसा जन्मदाता पर न रहा
बच्चों को साथ रखें छोड़े तो फिर किसके बुते।
सटाएं अपने साथ, जवान बना जन्म से नादान
सिलसिला आगे बढ़ा है कोसे फिर क्यों इंसान।
अपनी शिक्षा व संस्कार काट रही अपनी नाक
क्यों रोए हैं, याद न आए, जब गुरू रहा इंसान।
रिश्तों की मिठास खतम अकेला जीए है इंसान
अपनत्व दिखाओ मोहब्बत करो, इग्नोर न करो।
जीवन का हर किरदार अकेले क्यों निभाते हो
घर में हैं बेहतरीन अदाकार बस मौका तो दो।
गलती तो हम कर रहे खुद को खुदा समझ रहे
इस धरती पर हो कैसे, इस पर विचार कर लेते।
न वो दौर रहा न संस्कार रहा अभाव जरूर रहा
मगर असल जिन्दगी वही थी, रिश्ते में प्यार रहा।
बचपन की हर एक यादें बहुत अच्छी होती थी
धूल में सनी हुई जिन्दगी बड़ी सच्ची होती थी।
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✒......धीरेन्द्र श्रीवास्तव (हृदय वंदन)
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