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Wednesday, 27 May 2020

जिन्दगी का कदर....

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ऐ जिन्दगी बस इतना समझ ले;
तेरी कदर मौत के डर से ही है।
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कुदरत का कहर जरूरी ही था!
इंसान खुद को समझे था खुदा।
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अगर न होता मौत से उसको डर!
इंसान घर में फिर रूके ही कहाँ।
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शक्ति पर अपने जिसे था गुमान!
कहर से आज ये बेबस लाचार।
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मरने की तनिक भी फुर्सत न थी!
फुर्सत में कैसे जी रहा ये इंसान।
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ऐ जिन्दगी बस इतना समझ ले;
तेरी कदर मौत के डर से ही है।
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बहुत अकड़ बहुत जकड़ में था!
कुदरत ने कैसे तोड़ा सब गुमान।
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भूलाए बैठा था ईश्वर को इंसान!
आपही के सहारे जीने को तैयार।
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मुश्किलों का दौर जरूरी ही था!
ईश्वर को तभी पहचाने ये इंसान।
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तेरे महत्व को डर ने समझाया!
अपने पराए का फर्क दिखाया।
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ऐ जिन्दगी बस इतना समझ ले;
तेरी कदर मौत के डर से ही है।
🌹🌹
कविता का भाव :-
☆☆ वैसे तो हर जीवित प्राणी को अपने जिन्दगी से लगाव होता। प्राणी कभी भी अपने मृत्यु को स्वीकारना नहीं चाहता जबकि यह अटल है।   
☆☆ जब इंसान के जीवन पर कोई संकट आता जिससे उसके जान को खतरा है तब उसे कदर समझ आती वर्ना वह अपने माया में इस तरह से उलझा हुआ है कि उसे कुछ भी होश नहीं रहता।
☆☆ कोरोना जैसी वैश्विक महामारी की डर ने उसे घरों में कैद कर दिया पूरा संसार महिनों से अपनी जिन्दगी को बचाने के फिराक में बैठा हुआ है।
☆☆ हर इंसान अपने दैनिक क्रिया कलापों इतना उलझा था इतना व्यस्त था कि उसके पास मरने तक की समय नहीं थी और आज समय ही समय है।
☆☆ इंसान अपनी शक्तियों व धन वैभव के अभिमान में आकर अपने को सर्वशक्तिमान ईश्वर समझने लगा था; इंसान की शक्ति उसकी ताकत उसका धन वैभव को कुदरत ने एक पल में शून्य कर दिया सब धरी की धरी रह गईं।
☆☆ कुदरत ने इंसान को उसके वास्तविक मूल पर ला कर खड़ा कर दिया है। अपनी शक्ति व ताकत का अहसास करा दिया। अपनों की वेदना व संवेदना उनके होने न होने का कटू अनुभव करा दिया।

✒......धीरेन्द्र श्रीवास्तव (हृदय वंदन)

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