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पारखी नज़र न रही
दूरदर्शिता भी न रही
धैर्य न विश्वास रही
मान न संस्कार रही
मकसद बस ये रही
अर्जन हो जाए सही
वर्तमान स्वरूप यही
इज्जत कर न पाए
वाणी मधुर न रखें
ज्ञान फिर कैसे पाए
परिश्रम कर न पाए
दिमाग चला न पाए
कहो समझ न पाए
धन फिर कैसे पाए
बात बिलकुल खरी
विचार करो तो सही।
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कविता का भाव:-
☆☆इंसान के जीवन की सर्वभौमिक समस्या स्वयं की सोच और उसका व्यवहार ही है हम उस पर कभी भी गौर नहीं करते और न ही कभी समझने की कोशिश ही करते हैं। समस्याएं हमारी खूद की जनित होती और हम हैं कि दोषी किसी और को ठहराते हैं।
☆☆हम कोई भी कार्य करते करते हैं कोई भी बात करते हैं उसको सही तरीके से परखने का प्रयत्न ही नहीं करते और न ही गंभीर होते हैं।
☆☆कार्य और बात की गति और उससे होने वाले प्रभाव व दूरगामी परिणाम को समझने की कोशिश ही नहीं करते बस त्वरित लाभ व फायदा के चक्कर में अपने दूरगामी सुखद परिणामों से सहज ही वंचित हो जाते हैं।
☆☆आज के दौर में इंसान अपने धैर्य और विश्वास को इतना कमजोर कर लिया है कि थोड़ी थोड़ी परेशानियों और उलझनों से अपना धैर्य व अपनों पर से विश्वास ऐसे खो देता है जैसे पुराने दुश्मन हों।
☆☆पहले की तुलना में आज हम संस्कार विहिन होते जा रहे हैं। उसे न तो अपने मान सम्मान व ईज्जत की चिन्ता है और न ही दूसरों की; परिणाम सुखद हो ऐसी कल्पना कैसे कर सकता है? सोचता भी नहीं कि हमारे इस प्रकार के व्यवहार से हमसे लोग जूड़ेंगे कैसे?
☆☆बोली भाषा में मधूरता न रख पाने के कारण दूसरों से अपने बड़ों से बिना मूल्य चुकाए मिलने वाले प्रेम, स्नेह व ज्ञान से वंचित रहा जाता।
☆☆आज ज्यादातर लोगों की अभिलाषा यही है कि श्रम न करना पड़े, दिमाग न लगाना पड़े व झूकना न पड़े और हमारा हर कार्य व हर मुराद पूरी हो जाए।
✒......धीरेन्द्र श्रीवास्तव (हृदय वंदन)
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