कर्म मन और जज...
🍁🍁
मन ही तो सच्चा आइना होता,
इससे सच्चा हो सकता है क्या।
कर्मों का मन आइना होता,
मन से कोई बच सकता है क्या।
गुनाह दुनिया से छुपा सकता,
मन से कोई छुपा सकता है क्या।
भेद अच्छाई बुराई का करता,
भेद इंसा समझ सकता है क्या।
कर्मों का मन विवेचक होता,
विवेचना से बच सकता है क्या।
मन की अदालत बड़ी है होती,
अपील कोई कर सकता है क्या।
सजा भी ऐसा घुट घुट के मरता,
घुटन से खुद बच सकता है क्या।
विवेचक मन तो जज भी होता,
निर्णय कोई टाल सकता है क्या।
🍁🍁
✒...धीरेन्द्र श्रीवास्तव "धीर"
इससे सच्चा हो सकता है क्या।
कर्मों का मन आइना होता,
मन से कोई बच सकता है क्या।
गुनाह दुनिया से छुपा सकता,
मन से कोई छुपा सकता है क्या।
भेद अच्छाई बुराई का करता,
भेद इंसा समझ सकता है क्या।
कर्मों का मन विवेचक होता,
विवेचना से बच सकता है क्या।
मन की अदालत बड़ी है होती,
अपील कोई कर सकता है क्या।
सजा भी ऐसा घुट घुट के मरता,
घुटन से खुद बच सकता है क्या।
विवेचक मन तो जज भी होता,
निर्णय कोई टाल सकता है क्या।
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✒...धीरेन्द्र श्रीवास्तव "धीर"
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