मुक्तक.....
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कहीं दिन तो कहीं रात है,
कहीं गम तो कहीं बरात है।
है अंत सभी के जीवन का,
रखिए ना मन को उदास है।
इंसान राम तो रावण भी है,
मन आंगन में भाव भी है।
सोच क्रिया कलाप भी वैसा,
इसीलिए सुखी दुखी भी है।
अज्ञानता दुख की जननी,
ज्ञात न हो औषध से डरती।
लत आदत में गटके जहर,
विश्वास सहज उसमें रहती।
मौत अटल शाश्वत है होता,
ज्ञान की बात याद न होता।
मृत्युलोक का इंसान वासी,
सुभाव अमरता का होता।
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✒.......धीरेन्द्र श्रीवास्तव "धीर"
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