अपने आंगन की गौरैया....
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गौरैया का घर आंगन में आना होता था।
फुर्र फुर्र उड़ना, चहकना, जाना होता था।
रसोई के दरीचा में बना रखी थी घोसला।
परिवार साथ उसका, जमावड़ा होता था।
प्यार मोहब्बत से अपने बीच रहती थी।
घुली मिली थी ऐसी तनिक न डरती थी।
सुबह से लेकर शाम घर था उसका डेरा।
एकांत दोपहरी में बोली गुजा करती थी।
थाली देखे हाथ, साथ परिवार आती थी।
थाली से भात ढ़िठाई से चुग ले जाती थी।
उसके भात चुगने पर, मिलता था आनंद।
जबतक चुग न ले जाये स्वाद न आती थी।
पक्ष विपक्ष का उनमें भी खेला होता था।
रहती एकजुट झमेला बाहरी से होता था।
आक्रमण कोई बाहरी यदि कर देता तो।
फिर युद्ध उनके बीच विकराल होता था।
बात थी बचपन की, याद अपने आ गया।
उमर के साथ गौरैया का, पलायन हो गया।
वैसा अब न घर कोई, दौर वैसा न लोग कोई।
पशु पक्षी का छोड़े, इंसा कतराने लग गया।
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✒....धीरेन्द्र श्रीवास्तव "धीर"
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