घरवाली हो नौकरी वाली..
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शादियाँ नौकरी से हो रही,
हो घरवाली नौकरी वाली।
प्यार यार ठनठन गोपाला,
आए घरवाली रूपया वाली।
नयी संस्कृति नया जमाना,
फैशन में बिक रहा सयाना।
आधुनिकता के जामा पहने,
संस्कारी को गवार समझना।
भूला रहा आदर सत्कार,
वक्त कहाँ दे पाये संस्कार।
कामवाली ले कर के मोल,
बिगाड़ रही बच्चों के बोल।
नौकरानी विवश में होती,
बोल विवश के है सीखाती।
माँ का नहीं कोई विकल्प,
माँ व्यस्त नौकरी में होती।
माँ सबसे सर्वोच्च होती,
प्रथम गुरु घर माँ होती।
रुपया की लगी ऐसी होड़,
जिन्दगी की ऐसी तैसी।
संस्कारी की मत रख आशा,
रुपये का हर जन प्यासा।
चिन्ता भविष्य का होता, पर
रब पर विश्वास ना आस्था।
नयी संस्कृति बहुत गम्भीर,
माथा पकड़ सोचता "धीर"।
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✒......धीरेन्द्र श्रीवास्तव "धीर"
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