कवि मन वृद्धाश्रम में...
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क्यों इतना तु सोचे रे मनवा
मत इतना तु सोच रे..........
फंसा हुआ अपने माया में!
मता पिता हैं बृद्धाश्रम में!
उनकी काया से ही बने हैं!
वो अनाथ क्यों आश्रम में।
क्यों इतना तु सोचे रे मनवा
मत इतना तु सोच रे..........
ऐसी पीड़ा अपने ही देते!
गैरों से रख कर प्रित रे।
जन्म दिए पाले और पोषे!
उनके दर्द का नहीं मोल रे।
क्यों इतना तु सोचे रे मनवा
मत इतना तु सोच रे..........
माता पिता के प्रित को जाने!
कलप न पाए बुढ़ापा मन रे।
उनकी छाया तुझको बढ़ाए!
चल समझले उनकी प्रित रे।
क्यों इतना तु सोचे रे मनवा
मत इतना तु सोच रे..........
हे मन चल अब शांत हो जा!
जरूरी नहीं सब खुश रखें!
खुश होते वृद्धाश्रम न होता!
खून अपना ही उसे बसाया।
क्यों इतना तु सोचे रे मनवा
मत इतना तु सोच रे..........
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✒.....धीरेन्द्र श्रीवास्तव (हृदय वंदन)
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