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जीवन अपना था ही कब
जो अपने लिए जिए।
जीवन में महत्व का
कुछ रहा ही कब
अपने लिए जिए।
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बचपन में खेलकूद
शरारत के लिए जिए।
आई जवानी संबंध रखे
सबकी सेवा में दिन गुजारे
माता पिता भाई बहन रिश्ते
नाते पास पड़ोस खूब निभाए
पढ़ाई लिखाई सब राम कराए
प्रभू चला रहे अपना जीवन
जीवन अपना था ही कब
जो अपने लिए जिए।
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विवाह हुआ
अपना भी परिवार हुआ
बच्चों व पत्नी से संसार हुआ
जिम्मेदारियों का अहसास हुआ
उनकी खुशियां उनके अरमान
पूरण करता उनके फरमान
आज भी सबकुछ वैसा ही है
थोड़ा सीमित अब है दायरा
अपना भी परिवार हुआ
बच्चों व पत्नी से संसार हुआ
जिम्मेदारियों का अहसास हुआ
उनकी खुशियां उनके अरमान
पूरण करता उनके फरमान
आज भी सबकुछ वैसा ही है
थोड़ा सीमित अब है दायरा
नहीं कोई मलाल!
खुश भी हूँ आज।
जीवन अपना था ही कब
जो अपने लिए जिए।
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जीवन अपना था ही कब
जो अपने लिए जिए।
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✒....धीरेन्द्र श्रीवास्तव(हृदय वंदन)
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