किसे दोषी कहूँ....
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क्या करूँ; किसे दोषी कहूँ?
मानव को दोषी कहूँ या
ईश्वर को दोषी कहूँ या फिर
सरकारों को दोषी कहूँ
मानवता आज है संकट में
कोरोना क्या तेरा दोष नहीं?
~
मानव की विचित्र धारणा!
झट विश्वास है डिग जाता।
पल में तोला पल में माशा!
कितने रंग ढ़ंग बदल लेता!
माँगने की चाहत जब होती
प्रभू समक्ष याचक बन जाता।
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कभी आस्तिक बना रहता
पल में नास्तिक बन जाता
ईश्वर को न मानता न सूनता
जब संकट में घिर जाता।
कोई गद्दार कुछ कह देता
ईश्वर को भी झूठाला देता।
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रामयण में तमाम प्रसंग रहे
पागल थे वो जो रच डाले।
युगों पुरानी प्रभू की गाथा!
धीरज धरे जो पार हो जाता
क्या पढ़ते क्या सूनते हो
घर घर में ही बाचा जाता।
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तरस आता भक्ति भाव पर!
खुद मानव खुद को छलता!
जब रहता सत्संग पूजा में
बस हाथ जोड़े बैठा रहता!
मन का पूछो कहाँ लगा था
शातिर गुणा गणित में रहता।
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भक्ति भाव अब नहीं है प्यारे
पंडित ध्यान दक्षिना में यारे
पूजा शीघ्र खतम कर भागे!
आगे आऊर जजमानी थामे।
भक्त तो याचक बना बैठा है
बीच के सारे भजन भूला के।
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संकट के इस आलम में कैसे!
मानव धैर्य विहिन बन जाता!
ईश्वर की आस्था को छोड़ा!
व्याकुल नीज घर भाग रहा
नहीं भरोसा उसे किसी पर!
गद्दारों ने मानवता जो लूटा।
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बैठे सियासत की गद्दी पर
उनको बस गद्दी से नाता
मानवता की छाती चढ़ कर
बस सियासत ही चमकाना
तनिक सोचते राज्य गद्दारों
यूँ मानवता परेशान न होती।
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पीड़ा सबकी सहन न होती
मन खुद से यही सवाल करें!
मानवता इतनी है संकट में
हर जन मन व्यथित हो रहा
खाने दाने को लाले पड़ गए
भटकने को क्यों मजबूर इंसान?
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क्या करूँ; किसे दोषी कहूँ?
मानव को दोषी कहूँ या
ईश्वर को दोषी कहूँ या फिर
सरकारों को दोषी कहूँ
मानवता आज है संकट में
कोरोना क्या तेरा दोष नहीं?
मन खुद से यही सवाल करें!
मानवता इतनी है संकट में
हर जन मन व्यथित हो रहा
खाने दाने को लाले पड़ गए
भटकने को क्यों मजबूर इंसान?
~
क्या करूँ; किसे दोषी कहूँ?
मानव को दोषी कहूँ या
ईश्वर को दोषी कहूँ या फिर
सरकारों को दोषी कहूँ
मानवता आज है संकट में
कोरोना क्या तेरा दोष नहीं?
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✒......धीरेन्द्र श्रीवास्तव (हृदय वंदन)
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