एक चूक जीवन का शूल...
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इंसान के दिमाग की दो अवस्था होती प्रथम शान्तचित्त व दूसरा विकृतचित्त।
अगर इंसान का दिमाग शान्तचित्त पर फोकस करता तो उसका जीवन थोड़े में ही सुखमय, सहज, सरल, सौम्य व शान्त बन जाता है।
अगर इंसान का दिमाग विकृतचित्त पर फोकस करता तो उसका जीवन सारी व्यवस्थाएं रहने के बावजूद दुखमय, असहज, कठीन, असौम्य व अशान्त बन जाता है।
अक्सर इंसान के जीवन में अपनों के द्वारा या दीगर से ऐसी बात सुनने को मिलती है जो अपने स्वभाव से तनिक भी मेल नहीं खाती जो हमें विचलित व आक्रोशित कर देती है और तुरंत इंसान के मानसिक स्थिति दिमाग को बदल देती है।
कभी कभी इंसान उसी अवस्था में तुरन्त गलत फैसले कर अपने जीवन में बहुत बड़ा नुकसान भी कर बैठता है; कुछ फैसले तो ऐसे कर लेता है कि उससे पछताने के सिवाय और कोई दूसरा कोई माध्यम ही नहीं होता।
अगर उसी क्षण इंसान अपने जीवित विवेकी दिमाग से सहजता से बातों को समझे और उसकी बारिकियों पर मनन करें तो उसका खूद का वही दिमाग एक दूसरा पहलू व मतलब प्रस्तुत करता है जो उसे सुख देता तथा संतोष का आभास कराता और तब खूद को यह अहसास भी होता है कि अरे ऐसा भी हो सकता है।
दिमाग वही है लेकिन चतुर व समझदारी से वह उसमें एक सुखद अवसर भी ढ़ूंढ़ लेता है। तत्पश्चात उसकी मानसिक अवस्था सुखकारी हो जाती तथा सामने वाले के प्रति कोई दूर्भावना उत्पन्न भी नहीं होती।
मानसिक अवस्था का स्वस्थ व सुखी होना खुशियों का वातावरण बनाता है और वहीं दुखी मानसिकता दुख व कष्टों का वातावरण बना देता है। दिमाग एक है परन्तु दो अलग परिणाम।
यही मुख्य कारण व वजह है कि इंसान विवेकी होने कारण भी मानसिक स्थितियों में संतुलन बना नहीं पाता और जीवन में अविवेकिता का परिचय देते हुए ऐसी चूक कर जाता है कि जीवन पर्यन्त तक कभी न भूलने वाला जीवन भें अपने शूल बना लेता है।
तत्पश्चात इंसान इसी गलत सही अवस्था को अपने दिमाग में सेट कर लेता और उसी के अनुसार अपने समाज में जीने के लिए बेबस व मजबूर हो जाता है और उसी के अनुसार वह व्यवहार करने लग जाता और धीरे धीरे उसी के अनुसार जीने के लिए आदती हो जाता है।
अपनी उक्त मानसिक स्थिति के ही कारण इंसान अपने समाज में अपने परिवेश में घूल मिलकर रहता है या फिर दूरी बना कर रहना पसंद करने लग जा है।
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✒......धीरेन्द्र श्रीवास्तव (हृदय वंदन)
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