दर्द अपना कोई बताए भी तो कैसे ?
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दर्द अपना तुम आते ही सुना देते हो!
दर्द अपना कोई बताए भी तो कैसे?
चकित हूँ शक अपने पर हो जाता है!
दर्द का भागी कभी बनाया तो नहीं है?
मैं कैसा हूँ जाने क्यों समझ नहीं पाते!
मैं सही नहीं हूँ या तुम सही नहीं हो?
दूसरों के लिए हर असूल तोड़ देता हूँ!
अपने पर असूलों से जकड़ जाता हूँ?
शराफत से अब जी कर थक चुका हूँ!
तुम तो शराफत समझते ही नहीं हो?
दर्द अपना तुम आते ही सुना देते हो!
दर्द अपना कोई बताए भी तो कैसे?
माना की मजबुरियां तुम्हारी भी होंगी!
फिर हमदर्द का मतलब ही बता देते?
दर्द तब होता संबंध परख नहीं पाते!
साथ जीने का मतलब फिर बता देते?
मोहब्बत तो करते हमको यकीन है!
मेरी मोहब्बत पर कैसे यकीन करोगे?
जमाने की बेरूखी सहन हो जाती हैं!
तुम्हारी बेरूखी क्यों दहला देती है?
दर्द अपना तुम आते ही सुना देते हो!
दर्द अपना कोई बताए भी तो कैसे?
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लेखनी का भाव:-
☛समाज है यहाँ हर तरह के व हर सोच व तमाम विचारधारा के शख्सियत होते हैं किसी के लिए कोई बात बहुत सहज व आम तरह की होती है तो किसी दूसरे के लिए वही बात बहुत ही महत्वपूर्ण हो जाती। इंसान के जेहन में यह फरक उसकी विस्तृत, उच्चस्थ व दूरस्थ सोच की देन है।
☛मानव स्वभाव भी कई तरह का होता है चालाक भी होता तो कुछ शातिर भी कुछ तो जरूरत से ज्यादा ही चालाक व शातिर होता हैं। जरूरत से ज्यादा ही संबंधों के लिए घातक होता है।
☛उनकी कमी एक यह भी होती की वह हर व्यक्ति को अपने जैसा ही समझ कर जहाँ दिल का इश्तेमाल करना हो वहाँ दिमाग का करते हैं और जहाँ दिमाग का करना चाहिए तो वहाँ दिल का करते हैं; सारी गड़बड़ी यहीं से पैदा होना फिर शुरू हो जाता। फिर कोई लाख कोशिश करले सारा माहौल बिगड़ता चला जाता।
✒.......धीरेन्द्र श्रीवास्तव (हृदय वंदन)
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