~ये कैसी फ़लसफ़ा है~
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ये कैसी फ़लसफ़ा है!
सपने में भी दुश्मन न हो जो
आज बना बैठा है।
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अकड़ भी देखो कहाँ अड़ा है;
जहाँ स्वर्ग व जन्नत बसा है
अयोध्या है अपनी।
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कर्ज छोड़ो, फर्ज से भी डिगा है!
हर क्षण खुद भी जल रहा!
ये कैसी फ़लसफ़ा है।
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बड़ों के मान, सम्मान व
आदर से ही घर में बसती हैं खुशियाँ!
वरना दुसवारियां बढ़ा है।
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माया का पर्दा ऐसा चढ़ा है!
जनानी के सामने नरवस खड़ा है!
ये कैसी फ़लसफ़ा है।
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नई चेतना, नव युग है!
फूहड़ संस्कृति पर गर्व भी खुब है!
संतति गर्व से सीख भी रहा है।
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ये कैसी फ़लसफ़ा है।
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ये कैसी फ़लसफ़ा है।
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✒......धीरेन्द्र श्रीवास्तव (हृदय वंदन)
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