न्यायालय हो तो घर जैसा.....
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न्यायालय हो तो मेरे घर व घरैतिन जैसा!
अपराधी तु वकील तु जज भी तुम्ही हो।
गलतियाँ करके फैसला खूद ले लेती हो!
दूरी बनाने का सजा खूद ही दे देती हो।
घर जैसा न्यायालय संसार में नहीं होता है!
जो निर्दोष है उसे गुनहगार बना देती हो।
सजा ऐसा दोषी को सुनाया भी न जाए!
मियाद कितना निर्दोष को बताया न जाए।
वाह रे न्यायपालिका जवाब नहीं है तेरा!
फैसला होता मगर अपील नहीं होती है।
न पूछो कसम से दोष में मजे भी जमके!
जीवन में इसका अलग ही तरंग होता है।
न्यायालय हो तो मेरे घर व घरैतीन जैसा!
मिनटों में निर्दोष को दोषी करार देती हो।
गुनहगार नहीं फिर भी बोल नहीं सकता!
जैसी भी हो बहुत प्यारी है न्यायपालिका।
वाह रे न्यायपालिका जवाब नहीं है तेरा!
फैसला होता मगर अपील नहीं होता है।
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✒.....धीरेन्द्र श्रीवास्तव (हृदय वंदन)
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