प्रकृति से दूरी भोग रहा इंसान।
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प्रकृति से दूरी बना रहा इंसान
देखो तभी तो भोग रहा इंसान
सभ्यता के साथ किया मजाक
मौत के आगे बेबस हुआ आज
प्रकृति के मुताबिक न है इंसान
बोली भाषा आदत न संस्कार
खान पान व व्यवहार बदल गए
जीने के अंदाज बदल गए।
श्रम परिश्रम अब न उससे होता
सुविधाओं के भेंट जो चढ़ गए।
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सुविधाएं बड़ी ही सुखदायी है!
परन्तु आज वही दुखदायी है!
घर की हवा एसी साफ करता!
पानी भी आरओ साफ करता!
कपड़ा भी मशीन धोकर देता!
साबून रगड़ देह साफ करता!
मिट्टी से मानव का टूटा नाता!
इम्यूनिटी का तगड़ा ह्रास हुआ!
तभी तो गच्चे खा रहा इंसान।
रिफाईन प्यूरिटी के चक्कर में
मिनरल तत्वों से वंचित इंसान।
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डाॅक्टर पृथ्वी के भगवान हुए!
सरकारी को करते हैं सलाम!
प्राईवेट बन लूट रहे भगवान!
निज लाभ में शैतान बन गए
झोली भरने में लगा भगवान!
पहले इम्यूनिटी खराब किया!
खिला कर गोली कमाई किया!
उसके स्वार्थ की फेहरिश्त लंबी!
दस की गोली सौ में खिला कर।
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देखो कैसे बदल गए संस्कार!
खोपड़ी में पाले गलत विचार!
धरम करम से वंचित होकर
ईश्वर से आस्था निज छोड़कर
अपने को बस श्रेष्ठ समझ कर
श्रेष्ठता के पागलपन के दौर में
शहरी जीवन उच्च समझ कर!
गाँव का जीवन तुच्छ जान कर!
शहरी जीवन सिर्फ छलावा है!
अच्छी सुविधा अच्छी स्वास्थ्य
कब्र खुद रहीं वहीं पर तमाम।
प्रकृति से दूरी भोग रहा इंसान।
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गाँव के संस्कार को समझो आज!
गाँव का अपना अलग जीवन है!
हर आदमी यहाँ मेहनत कस है!
आबो हवा स्वच्छ और सुन्दर है!
सोशल डिस्टेंसिंग का है संस्कार!
गाँव का जीवन खुला खुला है
रहने खाने खेलने को जगह पर्याप्त
हर प्राणी जी रहा कितना आजाद!
न कोई रोक टोक न कोई अभाव!
गाँव का जीवन सुखी है आज!
प्रकृति से जुड़कर जी रहा इंसान।
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✒.....धीरेन्द्र श्रीवास्तव (हृदय वंदन)
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