विरोध निजीकरण का....
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इंसान की आदत यही होए,
चाहे जियादा बिन काम किए।
निजी न हो विरोध करे,
कर्तव्य निभाए तो काहे होए।
जिस घर के नालायक हों बेटे,
खण्डहर होते देर न लगते।
अपनी शिक्षा और चिकित्सा,
नहीं आपनाता सरकारी का।
नौकरी ही सरकारी भाता,
निजी शोषण सोच डर जाता।
सरकारी तंत्र पिता के जैसा,
निट्ठल्लों का भी पेट भरता।
आराम व सुविधा का मारा,
काम करे फिर क्यों बेचारा।
सरकारी है अराम का अड्डा,
लूट खसोट में लगा है बंदा।
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✒....धीरेन्द्र श्रीवास्तव (हृदय वंदन)
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